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चिड़ियाघर में पांडुरंग

कौन छोटा कौन बड़ा

साहसी बालक

वीर शिवाजी

गणेश शंकर विद्यार्थी






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Title: चिड़ियाघर में पांडुरंग

Author: विवेक ज्योति

Refrence: विवेक ज्योति



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चिड़ियाघर में पांडुरंग (विवेक-ज्योति पत्रिका से) पांडुरंग मद्रास के छोटे से गाँव में रहता था । वह बहुत साहसी और बुद्धिमान था । हमेशा सत्य बोलता था और बिना विचारे कुछ भी स्वीकार नहीं करता था । एक दिन शाम के समय पांडुरंग घर बैठकर पढ़ाई कर रहा था । अचानक हवा का झोंका आया और दीपक बुझ गया । अँधेरे में उसे लगा कि घर के भीतर कोई प्रवेश कर रहा है । वह चिल्ला उठा, ‘‘कौन? कमरे के भीतर कौन है?’’ – ‘‘मैं हूँ ।’’ पांडुरंग – ‘‘कौन मैं?’’ – ‘‘अरें, मैं हूँ, मैं ।’’ पांडुरंग – ‘‘चोर भी तो अपने को ‘मैं’ ही बोलता है ।’’ उत्तर – ‘‘अरे पांडु, मैं हूँ – तेरा मामा ।’ स्कूल-कॉलेज में पढ़ते समय पांडुरंग की खेलकूद में भी रुचि थी । वह हमेशा नए-नए खेलों का आविष्कार करता और अपने मित्रों के साथ आनन्द मनाता । एक बार वह अपने मित्रों के साथ चिड़ियाघर देखने गया । वहाँ वे लोग विभिन्न प्रकार के पशु-पक्षियों को देखते हुए जा रहे थे । एक पिंजरे में उन्होंने चिम्पांजी को देखा । पांडुरंग ने सोचा कि इसके साथ थोड़ा आनन्द लिया जाए । पांडुरंग के हाथ में एक लाठी थी । उसका एक सिरा उसने पिंजरे में घुसाकर चिम्पाजी की ओर बढ़ाया । चिम्पांजी दोनों हाथों से लाठी को पकड़कर अपनी ओर खींचने लगा । पांडुरंग भी अपने मित्रों के साथ लाठी का दूसरा सिरा इधर की ओर खींचने लगा । उधर चिम्पांजी भी अपनी पूरी ताकत लगाकर खींच रहा था । दोनों ओर खींचतान चल रही थी । थोड़ी देर बाद पांडुरंग ने अपने मित्रों को लाठी छोड़ने का इशारा किया । चिम्पांजी धड़ाम से पिंजरे के भीतर पलटी खाकर गिर गया । सभी जोरों से हँसते हुए आगे बढ़ गए । चिम्पांजी भौचक्का होकर वहीं बैठा रहा । पांडुरंग अपने मित्रों के साथ कुछ दूर एक टीले पर खड़े हो गए और हँसते हुए चिम्पांजी की तरफ देखने लगे । थोड़ी देर बाद लड़कों की एक और टोली घूमते हुए चिम्पांजी के पिंजरे के सामने खड़ी हो गई । वे चिम्पांजी की ओर देखते हुए हँसने लगे । चिम्पांजी ने अपने हाथ की लाठी का एक सिरा उन लड़कों की ओर बढ़ाया । लड़के खूब जोरों से लाठी को पकड़कर खींचने लगे । इधर चिम्पांजी भी जोर लगाकर खींच रहा था । अचानक चिम्पांजी ने लाठी छोड़ दी और सभी लड़के धड़ाम से जमीन पर गिर पड़े । चिम्पांजी दाँत निकालकर खूब हँसने लगा । बेचारे लड़के हक्के-बक्के रह गए । वे लज्जित होकर धरती से उठे और चुपचाप वहाँ से खिसक गए । पांडुरंग की टोली भी टीले के ऊपर से यह दृश्य देखकर हँसने लगी ।


Author:     विवेक ज्योति










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Title: कौन छोटा कौन बड़ा

Author: विवेक ज्योति

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कौन छोटा और कौन बड़ा? (विवेक-ज्योति पत्रिका से) स्वामी विवेकानन्द एकबार राजस्थान के किसी स्टेशन पर ट्रेन के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे । किसी कारण ट्रेन न आने से उन्हें तीन दिन तक वहीं स्टेशन पर रुकना पड़ा । उस समय अनेक लोग उनसे धर्मचर्चा करने आते । लोग आते और उनसे बातें करके चले जाते । स्वामीजी ने कुछ खाया है या नही, यह कोई भी नहीं पूछता । स्वामीजी स्वयं भी इस बारे में कुछ न कहते । तीसरी रात सबके चले जाने पर एक गरीब व्यक्ति ने आकर पूछा, ‘महाराज, आप तीन दिनों से लगातार लोगों से धर्मचर्चा कर रहे हैं, कुछ खाया तक नहीं, इससे मुझे बड़ा कष्ट हो रहा है ।’ स्वामीजी को लगा कि साक्षात् भगवान एक गरीब के वेश में उनके सामने आये हैं । स्वामीजी ने पूछा, ‘क्या तुम मुझे कुछ खाने को दोगे?’ वह गरीब निम्न जाति का था । उसने अत्यन्त सरल भाव से कहा, ‘मेरी तो बहुत इच्छा होती है कि मैं आपको रोटी बना कर खिलाऊँ । किन्तु यह मैं कैसे कर सकता हूँ? मैं आपको आटा-दाल दे देता हूँ, आप स्वयं दाल-रोटी बना लें ।’ स्वामीजी ने उससे कहा, ‘तुम अपनी बनाई हुई रोटी मुझे दो, मैं वही खाऊँगा ।’ इस पर वह गरीब व्यक्ति डर गया । यदि यहाँ के राजा को पता लग गया कि निम्न जाति का होते हुए भी उसने एक संन्यासी को रोटी बनाकर दी है, तो उसे भारी दण्ड मिलेगा । स्वामीजी ने उसे आश्वासन देकर कहा, ‘डरो मत, राजा तुम्हे दण्ड नहीं देंगे ।’ वह डरा हुआ तो था, पर साधु-सेवा की इच्छा से उसने स्वामीजी को अपनी बनाई हुई रोटियाँ खिलाई । स्वामीजी कहते थे उस समय उसका लाया भोजन बहुत स्वादिष्ट था । यहाँ तक कि देवराज इन्द्र यदि स्वर्ण के पात्र में अमृत लेकर आते, तो वह इतना तृप्तिदायक होता कि नहीं, इसमें सन्देह है । यह देखकर वहाँ के लोगों ने स्वामीजी से कहा, ‘स्वामीजी आपने इस व्यक्ति के हाथ का बना भोजन कैसे ग्रहण किया?’ स्वामीजी ने कहा, ‘तीन दिनों से आप लोग मुझसे केवल बातें ही करते रहे । किन्तु मैंने कुछ खाया है या नहीं, इसकी आप लोगों ने जरा भी परवाह नहीं की ! आप स्वयं को बड़ा समझते हैं और इस व्यक्ति को छोटा । उसने जो मानवता दिखाई है, उससे वह छोटा वैâसा हुआ?’ बाद में वहाँ के राजा से परिचय होने के बाद स्वामीजी ने यह घटना उनको सुनाई । राजा ने उस व्यक्ति को बुलाकर उसकी खूब प्रशंसा की और उसे पुरस्कार दिया ।


Author:     विवेक ज्योति










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Title: साहसी बालक

Author: विवेक ज्योति

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साहसी बालक (विवेक-ज्योति पत्रिका से) गुजरात राज्य के आनन्द जिले में एक करमसद नाम का गाँव है । वहाँ अंग्रेजी विद्यालय न होने से वहाँ के कुछ विद्यार्थी पाँच-छह मील दूर पेटलाद गाँव में पढ़ने जाते थे । इतना रास्ता पैदल ही जाना पड़ता था । इसलिए बच्चे भोर में ही विद्यालय के लिए निकल पड़ते थे । खेतों के बीच पगडंडीं से होकर गुजरना होता था । रास्ते भर हँसते-खेलते, गप्प लड़ाते वे सब विद्यालय जाया करते थे । भोर का शान्त वातावरण, गाँव की शुद्ध प्राकृतिक हवा, पक्षियों का मधुर कलरव, इनसे बच्चों का मन आनन्द से भरा रहता था । एक दिन हमेशा की तरह पाँच-छह विद्यार्थी भोर में विद्यालय की ओर निकले । पगडंडीं से जाते समय एक विद्यार्थी का ध्यान गया कि उनमें से एक कम है । आसपास देखकर वह बोला, ‘अरे वल्लभ कहाँ गया?’ दूसरे ने जवाब दिया, ‘वह देखो, वह वहाँ कुछ कर रहा है ।’ उसने चिल्लाकर पूछा, ‘अरे वल्लभ, तू क्या कर रहा है वहाँ !’ वल्लभ ने जवाब दिया, ‘थोड़ा रुको, बस, अभी मैं आ ही रहा हूँ ।’ इतना कहकर उसने खेत की पगडंडी के बीच एक पत्थर के खूँटे को खींच निकाला और एक तरफ फेंक दिया । दौड़ते हुए वह फिर से अपने साथियों से जा मिला । एक साथी ने पूछा, ‘अरे वल्लभ, तू पीछे क्यों रह गया ।’ वल्लभ ने सरल भाव से कहा, ‘रास्ते के बीच एक पत्थर गड़ा हुआ था । हमारी तरह अनेक लोगों को उससे तकलीफ हुई होगी । अँधेरे में कुछ लोगों के पैर में चोट भी लगी होगी । कल मैंने निश्चय किया था कि आज उसे उखाड़ कर ही दम लूँगा । इसलिये उसे निकाल कर फेंक दिया ।’ यह बालक आगे चलकर देश के महान नेता सरदार वल्लभभाई पटेल हुए । इनकी कार्य-कुशलता और दूसरों के प्रति सेवा की भावना को देखकर महात्मा गाँधी जी ने ‘सरदार’ कहकर उनकी प्रशंसा की थी ।


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Title: वीर शिवाजी

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वीर शिवाजी (विवेक-ज्योति पत्रिका से) भारत देश आज स्वतन्त्र है । परन्तु इस स्वतन्त्रता के पहले अनगिनत वीर अपने प्राणों का बलिदान देकर अमर हो गए हैं । इन वीरों में सबसे प्रथम नाम यदि किसी का आता है, तो वह नाम है छत्रपति शिवाजी महाराज । उन्हें देखने मात्र से एक आदर्श भारतीय युवक कैसा होना चाहिए, इसकी झलक मिल जाती है । बचपन में उनकी माता जीजाबाई उन्हें शिवबा कहकर पुकारती थीं । उनकी माँ उन्हें रामायण, महाभारत, पुराण, देशसेवा, स्वतन्त्रता-प्राप्ति आदि की गाथाएँ सुनाती थीं । शिवबा भी बड़े ध्यान से उन सब कहानियों को सुनते थे । बचपन में अपने मित्रों के साथ वे राजा-प्रजा का खेल खेला करते थे । इसके साथ तलवार चलाना, घुड़सवारी, कुश्ती आदि के खेलों में भी वे निपुण हो गए थे । शिवाजी का सारा जीवन ही वीरता की अद्भुत घटनाओं से भरा है । साधु-सन्तों के प्रति भी उनके मन में बचपन से ही श्रद्धा थी । वे जैसे-जैसे बड़े होते गए, उनके मन में गुरु-प्राप्त करने की जिज्ञासा हुई । उन्होंने महाराष्ट्र के बड़े सन्त समर्थ रामदास महाराज के बारे में बहुत सुना था । उन्हें भी उनसे दीक्षा लेने की इच्छा हुई । समर्थ रामदास किसी स्थान में दो-तीन दिन से अधिक नहीं रुकते थे । इसलिए शिवाजी को भी उनके दर्शन करने के लिए बहुत कष्ट उठाना पड़ा । अन्तत: उन्होंने एक दिन प्रतिज्ञा ली कि जब तक समर्थ रामदास जी के दर्शन नहीं होंगे, तब तक वे अन्न-जल ग्रहण नहीं करेंगे । शीघ्र ही उन्हें एक दिन जंगल में समर्थ रामदास जी के दर्शन हुए और उन्होंने शिवाजी को शिष्य के रूप में स्वीकार कर लिया । शिवाजी महाराज की इच्छा हुई कि वे सब कुछ छोड़कर अपने गुरुजी की सेवा करें । किन्तु गुरु रामदास जी ने उन्हें स्मरण दिलाया कि सारा देश लगभग मुगलों का गुलाम हो चुका है और देश को स्वतन्त्रता दिलानी होगी । शिवाजी महाराज ने अपना पूरा जीवन देशसेवा में सर्मिपत कर दिया और देश का खोया हुआ आत्म-सम्मान पुन: जाग्रत किया ।


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Title: गणेश शंकर विद्यार्थी

Author: विवेक ज्योति

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गणेश शंकर विद्यार्थी (विवेक-ज्योति पत्रिका से) यदि किसी मनुष्य के भविष्य को जानना हो, तो उसके बचपन की छोटी-मोटी घटनाएँ देखनी चाहिए, उससे ज्ञात हो जाएगा कि उसकी स्वाभाविक रुचि किस ओर है और उसका भावी जीवन किस प्रकार का होगा । बात पुरानी है । उन दिनों यदि किसी को डाक द्वारा पत्र भेजना होता था, तो किसी भी कागज पर डाक टिकट (पोस्टल स्टेम्प) लगा देने से वह मान्य होता था । एक मिडिल क्लास के छात्र ने इस प्रकार टिकट लगाकर पत्र भेजा, किन्तु डाक-कार्यालय ने उसे स्वीकार नहीं किया और उसे बैरंग कर दिया । उसे यह बात बुरी लगी । उसने इसका विरोध करने के लिए एक कागज पर टिकट चिपकाकर अपना ही पता लिखा और उसे डाक में भेज दिया । पोस्टकार्ड अस्वीकृत होकर उसके पास ही वापस आ गया और उसे पोस्टकार्ड वापस छुड़ाने के लिए पैसे चुकाने पड़े । छात्र ने पोस्ट मास्टर के पास जाकर तुरन्त शिकायत की । इस सम्बन्ध में बहुत लिखा-पड़ी हुई और अन्त में डाक-विभाग के अधिकारियों को अपनी भूल स्वीकार करनी पड़ी और उस छात्र के पैसे भी लौटाने पड़े । ये छात्र आगे चलकर देश के महान पत्रकार, लेखक, समाज-सेवी, राष्ट्र-सेवी, स्वतन्त्रता-सेनानी गणेश शंकर विद्यार्थी हुए । उनका जन्म १८३० में प्रयाग के पास अतरसुइया गाँव में हुआ था । उनके नाम के पीछे विद्यार्थी शब्द उनकी विद्या के प्रति दृढ़ निष्ठा का द्योतक है । वे सदैव एक विद्यार्थी की तरह ज्ञानार्जन के लिए तत्पर रहते थे । उन्हें पुस्तकें पढ़ने का एक प्रकार का रोग ही था । किन्तु वे केवल किताबी-कीड़े ही नहीं थे, वे जो पढ़ते एवं कहते उसको जीवन में उतारने का प्रयास भी करते । गरीबों के लिए उन्होंने बहुत सेवाकार्य किए थे । उन्हें भारत के प्रति असीम प्रेम था । उस समय भारत स्वतन्त्र देश नहीं था । भारत की स्वतन्त्रता के लिए उन्होंने अपने जीवन का बलिदान दे दिया था ।


Author:     विवेक ज्योति