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रामकृष्ण मिशन की दृष्टि में सेवा

स्वामी विवेकानन्द के स्वप्नों को युवक साकार करें

गुरु घासीदास का जीवन और सन्देश






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Title: रामकृष्ण मिशन की दृष्टि में सेवा

Author: स्वामी भूतेशानन्द

Refrence: विवेक ज्योति



Article:

दक्षिणेश्वर में एक दिन श्रीरामकृष्ण ने अर्धबाह्य दशा में कहा था – ‘जीव के प्रति दया नहीं, शिव-भाव से जीव-सेवा ।’ उस दिन स्वामी विवेकानन्द (तत्कालीन नरेन्द्रनाथ) के अतिरिक्त उपस्थित लोगों में से अन्य कोई भी व्यक्ति श्रीरामकृष्ण की इस उक्ति का तात्पर्य हृदयंगम नहीं कर सका । स्वामीजी ने कहा था – ‘‘ठाकुर के श्रीमुख से आज जो अद्भुत सत्य सुना है, उसका भविष्य में सर्वत्र प्रचार करूँगा ।’’ सेवा-धर्म का जो बीज श्रीरामकृष्ण अपने जीवन-काल में बो गये थे, उसने परवर्ती काल में रामकृष्ण मठ और रामकृष्ण मिशन की कार्यधारा में विशाल-वृक्ष के रूप में आत्म-विकास किया । स्वामीजी और उनके सभी गुरुभाई इस ‘शिव-भाव से जीव-सेवा’ के मूर्त विग्रह थे । स्वामीजी ने कहा है – ‘यह जान लेना कि अवतार के अन्तरंग पार्षद केवल वे ही होते हैं, जो दूसरों के हित में सर्वत्यागी होते हैं, जो भोग-सुख का काकविष्ठा की तरह ‘जगद्धिताय’ संसार के कल्याण के लिए परित्याग करते हैं तथा ‘परहिताय’ जीवन का अन्त कर देते हैं । इसीलिए बहुजनहिताय बहुजनसुखाय, इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए स्वामीजी ने मठ की स्थापना की, जिसका मूल मन्त्र है – ‘आत्मनो मोक्षार्थं जगद्धिताय च’ – अपनी मुक्ति और जगत का कल्याण करना । मुर्शिदाबाद में इस आदर्श को सर्वप्रथम वास्तविक स्वरूप प्रदान किया स्वामीजी के अनन्य गुरुभाई स्वामी अखण्डानन्दजी ने । इसके बहुत पहले मथुरबाबू के साथ तीर्थ यात्रा के समय वैद्यनाथ धाम में आर्त और दरिद्र लोगों की पीड़ा से श्रीरामकृष्ण का हृदय विदीर्ण हुआ था । उन लोगों की सेवा के लिए वे तीर्थयात्रा नहीं जाने को भी तैयार थे । वह घटना इस प्रकार है – मथुरबाबू के साथ काशी, वृन्दावन आदि तीर्थों का दर्शन करने जाते समय वैद्यनाथ धाम के निकट एक गाँव में लोगों का दुख-दारिद्र्य देखकर श्रीरामकृष्ण का हृदय करुणा से भर गया । उन्होंने मथुर से कहा – ‘तुम तो माँ के दीवान हो । इन सबको सिर में लगाने के लिए तेल और एक-एक वस्त्र दो । एक दिन भरपेट भोजन करा दो । पहले तो मथुर बाबू थोड़ी दुविधा में पड़ गये । बोले –‘बाबा, तीर्थ में बहुत खर्चे होंगे । यहाँ तो अनेक लोगों को देखता हूँ । इन लोगों को भोजन देने से रुपयों की कमी हो सकती है । ऐसी स्थिति में क्या कहते हैं? उस समय ग्राम-वासियों का दु:ख देखकर श्रीरामकृष्ण के नेत्रों में अनवरत अश्रुपात हो रहे थे । उन्होंने कहा – ‘धत्, तुम्हारी काशी मैं नहीं जाऊँगा ।’ इतनी बात कहकर वे बच्चों की तरह हठ कर उन लोगों के बीच में जा बैठे । इसके बाद की घटना सबको मालूम है । उस दिन ठाकुर ने स्वयं ही सेवा-व्रत के आदर्श को यथार्थ में प्रतिष्ठित कर दिया था । आज से सौ वर्ष पूर्व १८९३ ई. के मई महीने में मुर्शिदाबाद के दुर्भिक्ष की करुण कथा सुनकर स्वामीजी का हृदय भी विगलित हो गया था एवं स्वामी अखण्डानन्द को सेवाकार्य के लिए उन्होंने केवल उत्साहित ही नहीं किया, बल्कि आर्थिक सहायता भी प्रदान की थी । संघनायक स्वामीजी की प्रेरणा से रामकृष्ण मिशन के प्रथम संगठित सेवाव्रत का शुभारम्भ तभी से हुआ था । अखण्डानन्दजी को कथित उनकी अग्निमयी वाणी आज भी सब के प्राणों में उत्साह और उद्दीपन का संचार करती है । ‘गेरुआ वस्त्र भोग के लिए नहीं है । यह महाकार्य का प्रतीक है – मनसा वाचा कर्मणा ‘जगद्धिताय’ करना होगा । तुमने पढ़ा है ‘मातृदेवो भव’ मैं कहता हूँ, ‘दरिद्रदेवो भव, मूर्खदेवो भव ।’ दरिद्र, मूर्ख, अज्ञानी, दुखी ये ही तुम्हारे देवता हों ।’ इनकी सेवा को ही परमधर्म समझना । ठाकुर का सम्पूर्ण जीवन ही दूसरों के लिये समर्पित था । दूसरों के प्राणों में थोड़ी सान्त्वना देने के लिए ठाकुर की करुणापूर्ण पुकार सबके हृदय का स्पर्श करती है । इनकी तप:पूत देह इतनी कोमल थी कि द्वार-द्वार जाकर नित्यानन्द की भाँति ज्ञान-दान करने, प्रेम-वितरण करने की उनकी क्षमता नहीं थी । गिरीश बाबू ने एक दिन ठाकुर के समीप जाकर देखा, उनकी आँखों से झर-झर आँसू प्रवाहित हो रहे हैं और दुख से कह रहे हैं, ‘निताई (नित्यानन्द) ने पैदल चलकर घर-घर में प्रेम-वितरण किया था । किन्तु मैं तो गाड़ी नहीं होने पर चल ही नहीं पाता हूँ ।’ फिर कभी दूसरे समय में कहा था – ‘मैं साग खाकर भी दूसरों का उपकार करूँगा ।’ जीव के उद्धार के लिये ही श्रीरामकृष्ण का आगमन हुआ । वे माँ के निकट कातर भाव से प्रार्थना करते हैं, ‘माँ मुझे बेहोश मत करो ! माँ मुझे ब्रह्मज्ञान मत दो !’ वे दुखतप्त पीड़ितों के प्राणों में आशा और आनन्द का संचार करना चाहते थे । दूसरी ओर प्लेग की सेवा के लिए बेलूड़ मठ को बेच देने में भी स्वामीजी के मन में थोड़ी-सी भी दुविधा नहीं थी । अपनी सन्तानों को दुखार्त लोगों की सेवा करते देखकर वे गम्भीर रूप से अभिभूत हो जाते थे । अपने उसी आनन्द की अभिव्यक्ति को उन्होंने कुमारी हेल को लिखित एक पत्र में इस प्रकार की है – ‘‘तुम्हारा हृदय यह देखकर आनन्द से प्रफुल्लित हो जाता कि किस तरह मेरे वत्सगण अकाल, व्याधि और दुख-कष्ट के बीच में काम कर रहे हैं । हैजे से पीड़ित ‘पेरिया’ की चटाई के पास बैठे उसकी सेवा कर रहे हैं और भूखे चाण्डाल को खिला रहे हैं ।’’ क्षणभंगुर मानव-जीवन मनुष्य के जीवन में स्थायित्व कितना कम है – आयुर्नश्यति पश्यतां प्रतिदिनं याति क्षयं यौवनं प्रत्यायान्ति गता: पुनर्न दिवसा: कालो जगद्भक्षक: लक्ष्मीस्तोयतरंगभंगचपला विद्युच्चलं जीवितं तस्मान्मां शरणागतं शरणद त्वं रक्ष रक्षाधुना ।। (श्रीशिवापराधक्षमापनस्तोत्रम् – १३) प्रतिदिन आयु नष्ट हो रही है, यौवन का क्षय हो रहा है । बीता हुआ दिन फिर वापस नहीं आता । काल संसार का भक्षक है और लक्ष्मी (धन-सम्पत्ति) जल की तरंग-भंग की भाँति चपला है । जीवन विद्युत के समान क्षणभंगुर है । स्वामीजी ने कहा है – ‘यह जीवन क्षणभंगुर है, संसार का धन, मान, ऐश्वर्य सभी क्षणिक हैं । केवल वे ही वास्तविक रूप से जीवित हैं, जो दूसरों के लिये जीते हैं । स्वामीजी के विचारानुसार दूसरों को प्रेम करना और दूसरे के दुख से दुखित होना एवं दुख दूर करने के लिए आन्तरिक प्रयास करना, यही वास्तविक मानव धर्म है । स्वामीजी कहते हैं – ‘‘क्या तुम लोग मनुष्य को प्रेम करते हो? ...दरिद्र दुखी, दुर्बल, ये सब क्या तुम्हारे ईश्वर नहीं हैं? पहले उनकी उपासना क्यों नहीं करते हो?’’ वे कहते हैं – ‘जीव-सेवा से बढ़कर और दूसरा कोई धर्म नहीं है ।’’ आज भी लाखों व्यक्ति दरिद्रता की मार से जर्जर हो जीवन का अन्त कर देते हैं । भूख नहीं मिटा पाने के कारण माँ अपनी सन्तान की हत्या कर रही है । समाचार पत्र पढ़ने पर नित्य ही उसका करुणापूर्ण वर्णन देखने को मिलता है । हमलोग देखकर भी उसे नहीं देखते, उसके निवारण का प्रयास नहीं करते । यह क्या हमलोगों की आत्म-प्रवंचना नहीं है? हम लोगों की इसी जड़ता को फटकारते हुए स्वामीजी कहते हैं – ‘‘स्वार्थपरायणता – पहले अपने लाभ के लिए सोचना ही सबसे बड़ा पाप है । जो पहले यह सोचता है कि पहले मैं खाऊँगा, दूसरे की अपेक्षा मैं अधिक धनवान होऊँगा, मैं समस्त सम्पदाओं का स्वामी होऊँगा, जो यह सोचता है कि मैं दूसरे से पहले स्वर्ग जाऊँगा, मैं दूसरे से पहले मुक्ति-लाभ करूँगा, वही व्यक्ति स्वार्थपरायण है । स्वार्थरहित व्यक्ति कहता है – मैं सबके पहले जाना नहीं चाहता, सबके बाद मैं जाऊँगा । मैं स्वर्ग जाना नहीं चाहता । यदि अपने भाई-बन्धुओं की सहायता करने के लिए नरक जाना पड़े, उसके लिए भी तैयार हूँ ।’ वास्तविक सेवक को निश्चय ही स्वार्थरहित होना होगा । तभी सेवा पूजा में परिणत होगी एवं सही ढंग से ऐसा कर सकने पर वही हमलोगों की मुक्ति की सीढ़ी होगी । मुक्ति मुष्टिगत होगी – ‘मुक्ति: करफलायते ।’ सेवा का अर्थ केवल अनेक लोगों को अन्न, वस्त्र देना नहीं है, यह आत्मोन्नति का मार्ग है, निष्काम कर्मसाधना का क्षेत्र है । इस निष्काम कर्म के फलस्वरूप चित्त शुद्ध होता है तथा श्रीभगवान सर्वत्र ही विराजमान हैं, यह हृदयंगम होता है । उन्होंने (भगवान ने) जो हमलोगों को सेवा का सुयोग प्रदान किया है, यह हमलोगों की परम उपलब्धि है । इसे मन में रखकर कृतज्ञतापूर्वक अपने अहंकार और स्वार्थपरता का त्याग कर यदि मात्र एक दरिद्र व्यक्ति की भी श्रद्धापूर्वक साधारण सेवा की जाय, तो इससे भी हमारा जीवन धन्य हो जाएगा । शास्त्र कहते हैं – ‘श्रद्धया देयम् । अश्रद्धयाऽदेयम् – श्रद्धापूर्वक देना होगा, श्रद्धाहीन होकर नहीं । यथार्थ त्याग और सेवा का मनोभाव नहीं रहने पर मनुष्य की सही-सही सेवा नहीं की जा सकती । एक बार पूजनीय शरत् महाराज (स्वामी सारदानन्द ) ने एक व्यक्ति को सेवा-केन्द्र में भेजने के पहले कहा था – ‘लोगों के द्वारा दिये गए रुपये तू लोगों को देगा, तो फिर तू क्या देगा?’ फिर स्वयं ही उन्होंने उत्तर देते हुए कहा था – तू अपना हृदय देगा, प्रेम देगा, प्राण देगा ।’ अर्थात् कर्म और उपासना का समन्वय होता है, वे सामान्य मनुष्य नहीं होते, वे महापुरुष सबके पूज्य होते हैं । श्रीरामकृष्ण हमलोगों को वह शक्ति और सामर्थय दें, जिससे उनके आदर्श को कार्य में परिणत कर हमलोग अपने इस मानव जीवन को सार्थक कर सकें । स्वामीजी ने अपने पश्चिमी देशों की यात्रा समाप्त कर स्वदेश वापस आकर अपने देश और मानव जाति के कल्याण में मन, वचन और शरीर से अपने आप को सर्मिपत कर देने का आह्वान किया था । इस उद्देश्य से ही उन्होंने श्रीरामकृष्ण नामांकित ‘रामकृष्ण मिशन’ की आज से सौ वर्ष पूर्व ‘१ मई, १८९७ ई. में स्थापना की थी । उन्होंने कहा था – ब्रह्म और परमाणु, कीट तक, सब भूतों का है आधार । एक प्रेममय, प्रिय, इन सबके चरणों में दो तन-मन वार ।। बहु रूपों से खड़े तुम्हारे आगे और कहाँ है ईश? व्यर्थ खोज ! यह जीव प्रेम की ही सेवा पाते जगदीश ।। स्वामीजी की यह अमृतवाणी हमलोगों के मन में सदैव जाग्रत रहे । (स्वामी भूतेशानन्दजी महाराज रामकृष्ण संघ के १२वें संघाध्यक्ष थे ।)


Author:     स्वामी भूतेशानन्द










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Title: स्वामी विवेकानन्द के स्वप्नों को युवक साकार करें

Author: स्वामी प्रपत्त्यानन्द

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